बिहार

समाज ही नहीं चाहता महिलाओं की समुचित भागीदारी

समाज ही नहीं चाहता महिलाओं की समुचित भागीदारी

गौड़ की आवाज, ब्यूरो प्रमुख कैमूर, बिहार। महिलाओं के उत्थान और सामाजिक भागीदारी के लिए सरकार चाहे कितना भी कदम उठाए लेकिन जनप्रतिनिधि पूर्ण रूप से लागू नहीं होने देते। अगर बात अधिकारी की आती है तो प्रखंड, अंचल, अनुमंडल, जिला, प्रमंडल, प्रदेश सहित सभी कार्यालयों में महिलाओं की भागीदारी तो देखी जाती है लेकिन बात जब जनप्रतिनिधि की आती है तो विजेता महिला के प्रतिनिधि के रूप में हर जगह मेल पर्सन ही नजर आते हैं। सरकार द्वारा महिलाओं की भागीदारी सुनिश्चित करने के लिए महिला पद आरक्षित कर निर्वाचन तो करा लेती है निर्वाचित महिला प्रतिनिधि ना तो किसी कार्यक्रम या प्रशिक्षण में भाग लेती हैं ना ही जनता द्वारा चुनकर भेजे भेजे गए महिला प्रतिनिधि को उनके अधिकार कार्य के बारे में बताया जाता है ना हीं वह अपने पद का उपयोग कर पातीं हैं। अमुमन देखा जाता है कि विजेता महिला के प्रतिनिधि के रूप में उनके देवर या पति ही कार्य करते हैं जबकि प्रावधानों के अनुरूप ऐसा नहीं है। बात हर जगह हर पद की होती तो कुछ समझ में आता लेकिन जहां देखा जाता है कि उच्च सामाजिक पैठ और आर्थिक रूप से संपन्न निर्वाचित पर कोई उंगली नहीं उठाता तो गरीब या साधारण परिवार से आने वाली महिला के प्रतिनिधि को व्यंग्य का सामना करना पड़ता है। सबसे ज्यादा असर पंचायत और जिला स्तर पर ही देखने को मिलता है। इस संबंध में सरकार ने बार-बार नोटिफिकेशन भी जारी किया लेकिन इस पर भी कोई प्रभाव नहीं पड़ रहा। एक ओर पंचायती राज अधिनियम में महिलाओं की भूमिका सुनिश्चित करने व पर्याप्त प्रतिनिधित्व करने के लिए के लिए उनको 33% का आरक्षण दिया गया है पर हकीकत कुछ और ही है सब मिलाकर यह समझा जा रहा है कि अधिकारियों और जनप्रतिनिधियों के साठ गांठ से ऐसा खेल लंबे समय से चल रहा और भविष्य में भी चलता हीं रहेगा। क्योंकि आज भी महिलाओं के लिए रिजर्व सीट पर ग्राम पंचायत और नगर पंचायत की विजेता महिला प्रत्याशी के प्रतिनिधि शान से उनकी कुर्सी पर बैठते हैं, मीटिंग में शामिल होते हैं लोगों की बात सून अंतिम निर्णय भी देते हैं। क्या यह महिला अधिकारों का दमन नहीं है? आज तक ऐसा तो कहीं नहीं देखा गया है कि विजेता पुरुष अभ्यर्थी के अनुपस्थिति में महिला उनके पूरे कार्य का निर्वहन करें तो फिर सरकार के प्रशासनिक अधिकारी सरकार के आदेश के बाद भी इस पर लगाम लगाने में विफल क्यों है? यह सवाल बुद्धिजीवी के मन में खटकता जरूर है।

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