
*मैं इक मजदूर हूँ*
जीवन के रंग और रोशनी से दूर हूँ,मैं इक मजदूर हूँ ।धरती पे कोठी और महल जो सारे हैं,मेरे ही हाथों ने सबको सवाँरे हैं।नींव में पड़ी उनकी एक-एक ईंटों से, गहरे सम्बन्ध और परिचय हमारे हैं।झोंपड़ी में रहने को फिर भी मजबूर हूँ।मै इक मजदूर हूँ।अपने ही हाथों चलाता कारखाना मै,भरता हूँ मालिक का अपने खजाना मैं।जलती दोपहरी में रुधिर जलाता हूँ,सबके चलने के लिए सड़कें बनाता हूँ।उर की उमंग ऊर्जा से भरपूर हूँ।मैं इक मजदूर हूँ ।ऊँची चिमनियाँ सब धुआँ जो उगलती हैं,मेरे ही खून व पसीने से जलती हैं।मंदिर मे जो भी है मूर्ति भगवान की,सबमे इक आभा है मेरे श्रम-ज्ञान की।उनकी कृपा से फिर भी मैं दूर हूँ।मैं इक मजदूर हूँ ।रचनाकार -अनिल कुमार वर्मा मधुर*